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उसे दुत्कार ही क्यों न दे, उसे ठुकरा ही क्यों न दे, वह उसे अपयश के अँधेरे खड्डे में न गिरने देगी।

जब दोनों यहां से चले तो जालपा ने पूछा——इस आदमी से कह दिया न कि जब वह आ जायें तो खबर दे दे? 'हां, कह दिया है।'

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एक महीना गुजर गया। गोपीनाथ पहले तो कई दिन कलकत्ते की सैर करता रहा, मगर चार-पाँच दिन में ही यहाँ से उसका जो ऐसा उचाट' हुआ कि घर की रट लगानी शुरू की। आखिर जालपा ने उसे लौटा देना ही अच्छा समझा। यहाँ तो वह छिप-छिपकर रोया करता था।

जालपा कई बार रमा के बँगले तक हो आयी। वह जानती थी कि अभी रमा नहीं आये हैं फिर भी वहाँ का एक चक्कर लगा आने में उसको एक विचित्र सन्तोष होता।

जालपा कुछ पढ़ते-पढ़ते या लेटे-लेटे थक जाती, तो एक क्षण के लिए खिड़की के सामने आ खड़ी होती थी। एक दिन शाम को वह खिड़की के सामने आयी, तो सड़क पर मोटरों की एक कतार नजर आयी। कुतूहल हुआ, इतनी मोटरें कहाँ जा रही हैं। गौर से देखने लगी, छ: मोटरें थी। उसमें पुलिस के अफसर बैठे हुए थे। एक में सब सिपाही थे। आखिरी मोटर पर जब उसकी निगाह पड़ी तो मानो उसके सारे शरीर में बिजली की लहर दौड़ गयी। वह ऐसी तन्मय हुई, कि खिड़की से जीने तक दौड़ आयी, मानो मोटर को रोक लेना चाहती हो, पर इसी एक पल में उसे मालूम हो गया कि मेरे नीचे उतरते-उतरते मोटर निकल जायेगी। वह फिर खिड़की के सामने आयी। रमा अब बिलकुल सामने आ गया था। उसकी आँखें खिड़की की ओर लगी हुई थीं। जालपा ने इशारे से कुछ , कहना चाहा, पर संकोच ने रोक दिया। ऐसा मालूम हुआ, कि रमा की मोटर कुछ धीमी हो गयी है। देवीदीन की आवाज़ भी सुनायी दी। मगर मोटर रुकी नहीं। एक ही क्षण में वह आगे बढ़ गयी, पर रमा अब भी रह रहकर खिड़की की ओर ताकता जाता था।

जालपा ने जीने पर आकर कहा——दादा !

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