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दयानाय ने माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले- नहीं मैं ऐसा न करने दूंगा। मैंने जाल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ। छिः छिः जो काम सीधे से चला सकता है, उसके लिये एक फरेब ? कहीं उसकी निगाह पड़ गयी, तो समझते हो वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी ? माँग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमा०-आपको उससे क्या मतलब ? मुझसे चीजें ले लीजियेगा। मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी ? व्यर्थ को विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था, कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे ? वरना मैं उन चीजों को कभी न ले जाने देता।

दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले-इतने पर भी केवल चन्द्रहार न होने से वहाँ हाय-तौबा मच गया।

रमा० -उस हाय तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी ? जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच गयी, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई। इधर यह आफत सिर पर पायी। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इत्ने फटे-हाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब करना ही पड़ेगा।

दयानाथ चुप हो गये। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनायी और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गये। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकाएँ न पढ़ लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गड़ी में पहुंचकर घर की चिन्ताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी।

रमा भी वहाँ से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक यही मर्दाना कमरा था। इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लड़के पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा तो दोनों लड़के ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवा। दोनों रमा से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता था, पर भाइयों को खेलते

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