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उसका क्रोध चढ़ता देखकर रसोइया चुपके से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो चार लुकमे खाकर बाहर सहन में टहनने लगा। यही धुन सवार थी,कैसे यहाँ से निकल जाऊँ!

एकाएक उसे ऐसा जान पड़ा,कि तार के बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हाँ,कोई खड़ा उसकी तरफ़ ताक रहा है! शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रमानाथ का दिल धड़कने लगा। कहीं षड्यंत्रकारियो ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है। यह शंका उसे सदैव बनी रहती थी। इस ख्याल से वह रात को बँगले के बाहर बहुत कम निकलता था। आत्मरक्षा के भाव ने उसे अन्दर चले जाने की प्रेरणा की। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर से निकली! उसके प्रकाश में रमा ने देखा,वह अँधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी साफ़ नजर आ रही थी। फिर उसे मालूम हुआ कि यह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई,कोई मर्द वह वेश बदल कर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है? वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया,वह छाया उसकी ओर बढ़ती गयी, यहाँ तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज़ रमा की तरफ फेकी! रमा चीख मारकार पीछे हट गया,मगर वह केवल एक लिफ़ाफ़ा था। उसे तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा तो वह छाया अंधकार में विलीन हो गयी थी। रमा ने लपककर वह लिफ़ाफ़ा उठा लिया। भय भी था और कुतूहल भी। भय कम था, कुतूहल अधिक। लिफाफे को जेब में छिपाये वह कमरे में आया, दोनों ओर के द्वार बन्द कर लिये और लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके हृदय में फुरेरिया-सी उड़ने लगी। लिखावट जालपा की थी। उसने फ़ौरन लिफ़ाफ़ा खोला। जालपा की ही लिखावट थी। उसने एक ही साँस में पत्र पड़ डाला और लब एक लम्बी सांस ली। उसी सांस के साथ चिन्ता का यह भीषण भार जिसने आज छः महीने से उसकी आत्मा को दबा कर रखा था,वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवन-रक्त चूस रही थी,वह सारी दुर्बलता,लज्जा,ग्लानि मानो उड़ गयी। छूमन्तर हो गयी। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व,इतना आत्म-विश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोगा से कह दूँ, मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है,लेकिन फिर ख्याल आया बयान तो अब हो ही चुका,जितना अपयश मिलना था,

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