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'हैं कहां?'

'यह क्या खड़ा है ? '

'अच्छा, बुला लो।'

रमा चादर ओढ़े कुछ झिझकता झपता, कुछ डरता, जीने पर बदा। जालपा में उसे देखते ही पहचान लिया ! तुरन्त दो कदम पीछे हट गयी।

देवीदीन बहाँ न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। जसकी आँखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपसता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, हृदय में कभी इतना मृदुकम्पन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई।

३९

वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पड़ाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा दोनों ही को अपनी छः महीने की कथा कहानी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को खुब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने दी। वह डरती थो इन्हें दुःख होगा: लेकिन रमा को रुलाने में विशेष प्रानन्द आ रहा था। वह क्यों भागा, किस लिए भागा, कैसे भागा——वह सारी गाया उसने करुण शब्दों में कहीं और जालपा ने सिसक-सिसक कर सुनी। वह अपनी बातों से प्रभावित करना चाहता था। अब तक कभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात जसे असह्य मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंजवाली बाल को वह खुब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था; लेकिन वहाँ भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीति-लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों को राई का पर्वत बनाकर दिखाये ?

जालपा ने सिसककर कहा——तुमने यह सारी आफ़तें भेली, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था ! मुंह देखें की प्रीति थी ! आँख प्रोट पहाड भोट !

रमा ने हसरत से कहा——यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुजरती थी, दिल ही जानता है; लेकिन लिखने का मुंह भी लो हो। जन्म मुंह

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