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छिपाराकर घर से भागा, तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठा। मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपाये न कमा लूंगा, एक शब्द भी न लिखुगां।

जालपा ने आंसु-भरी आँखों में व्यंग भरकर कहा——ठोक हो था, रुपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते हैं ! हम तो रुपये के यार है: तुम चाहें चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख माँगा, किसी उपाय से रुपये लायो। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि बाह ! गोसाई जी भी तो कह गये है——स्वारथ लाइ कहीं सब प्रोती !

रमा ने झेपते हुए कहा——नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे हाल जाऊँगा कैसे ! सच कहता हूँ. मुझे सबसे ज्यादा 'डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, भूता, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रुपये का थैलो देखकर तुम्हारा हृदय कुछ तो नम होगा।

जालपा ने कंठ से कहा——मैं शायद उस थैली को हाथ से छुती भी नहीं। प्राज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच. कितनी स्वार्थिनी, कितनो लोभी समझते हो। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह दिन ही क्यों प्राता ? जो पुरुष तीस चालीस रुपये महीने का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रुपये रोज खर्च करे, हजार-दो हजार के गहने पहनने की नीयत रखे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया। मगर एक बार जिस प्राग में जल चुकी, उसमें फिर न कूदूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित किया है, और शेष जीवन के अन्त समय तक करूँगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया, या गहने कपड़े से मैं' ऊब गयी या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गयो। यह सब अभिलाषाएं ज्योंकी-त्यों हैं। पुरुषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको, तो क्या कहना; लेकिन नीयत खोटो करके, परमातमा को कलुषित करके एक लाख भी लानी, तो मैं ठुकरा दूंगी। जिस वक्त मुझे मालूम हुया कि तुम पुलिस के गवाह बन गये हो, मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त' बादा को साथ लेकर तुम्हारे बंगले तक गयी; मगर उसी दिन तुम बाहर

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