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कभी वह घोड़े पर झुंझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती; लेकिन यह दुःखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नांद के भूसे-खली में मग्न रहती है। सामने हरे-हरे मैदान है, उसमें सुगन्धमय घासें लहरा रही हैं। पर वह पगहिया तुड़ाकर कभी उधर नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अन्तर नहीं। यौवन को प्रेम की इसनी क्षुधा नहीं होती, जितनी आत्मप्रदर्शन की। प्रेम की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदर्शन के सभी साधन मिले हुए थे। उसकी युवती-आत्मा अपने शृङ्गार और प्रदर्शन में मग्न थी। हंसी-बिनोद, सैर-सपाटा. खाना-पीना यही उसका जीवन था, प्रायः जो सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की उसे न इच्छा थी न प्रयोजन। सम्पन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शांत करती है। उसके पास अपने दुःखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं ...-सिनेमा है, थिएटर हैं, देश-भ्रमण है, ताश हैं, पालतू जानवर हैं, संगीत है। लेकिन बिपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं, इसके सिवा कि वह रोये, अपने तकदीर को कोने या संसार से विरक्त होकर आत्महत्या कर ले। रतन की तक़दीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भङ्ग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे खड़ा घूर रहा था।

और यह सब हुआ अपने ही हाथों। पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फ़िक नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था, कि दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत की उनसे क्या दुश्मनी थी, जो खुद उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का ख्याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए, लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई, कि पंडितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझा। तब से फिर उन्हें इतना होश न आया, कि वसीयत लिखवाते।

पंडितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि
                                 

ग़बन
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