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जालपा-नींद की गठरी होगी?

रमा-गलत।

जालपा--तो प्रेम की पिटारी होगी।

रमानाथ-ठीक। अाज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊँगा।

जालपा खिल उठी। रमा ने बड़े अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किये, फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जाला के कोमल शरीर में गुदगुदी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।

जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि जरा आईने में अपनी छबि देखे। सामने कमरे में लैम्प जल रहा था, वह उठकर कमरे में गयी, और आईने के सामने खड़ी हो गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी है। उसने पानदान उठा लिया और बाहर पाकर पान बनाने लगी।

रमा को इस समय अपने कपट व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने कमरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नेत्रों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह फेर लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आँखों के सामने वह ताक न सका। उसने सोचा- मैं कितना बड़ा कायर हूँ। क्या मैं बाबूजी को साफ़साफ़ जवाब न दे सकता था ? मैंने हामी ही क्यों भरी ? क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था ? उसकी आँखें भर आयीं। जाकर मुंडेर के पास खड़ा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार उसे किसी भयंकर जन्तु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक बार जी में आया, सारा कपटव्यवहार खोल दूं लेकिन संभल गया। कितना भयंकर परिणाम होगा! जालपा की नजरों से गिर जाने की कल्पना ही उसके लिये असह्म थी।

जालपा ने प्रेम-सरस नेत्रों से देखकर कहा-मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गये, और अम्माजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी, तुम कैसे होगे। मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे।

रमानाथ ने एक लम्बी साँस खीची। कुछ जवाब न दिया।

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