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हाथों में हथकड़ियाँ थी, पैरों में बेड़ियां। कोई लेटा था, कोई बैठा, था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्न-चित्त थे। घबराहट, निराशा, या शोक का किसी के चेहरे पर चिह्न न था।

ग्यारह बजते-बजते अभियोगी की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बात हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अन्त में तीन बजे रमानाथ गवाहों को कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गयी। कोई तन्वाली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रखा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गये। जालपा भी संभलकर बार्जे में खड़ी हो गयी। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आँखें उठ जाती और उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाये खड़ा था, मानों वह इधर-उधर देखते डर रहा हो। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था ! कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बांध रखा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक् कर रहा था, मानों उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।

रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी', दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिये, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फ़क कर दिया, और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लम्बी साँस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गयी; मगर दिल फिर न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिये। वही पुलिस को सिखायी हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुँह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खाँसा, कि शायद अब भी रमा को आँखे ऊपर उठ जायें; लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज पहचान ली या आत्मग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।

एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थीं, नाक सिकोड़कर कहा——जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस अभागे देश में पड़े हैं, जो नौकरी या थोडे-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी फेरने से भी नहीं हिचकते !

ग़बन
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