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हैं।'

'किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ा कर दिया गया होगा। चाहे उस बंँगले को छोड़ दिया हो। और अब उनमें मुलाकात हो ही गयी तो क्या फायदा? अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोग-हलफी में फँस जायँगें।

कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा——मैं सोचती हूँ, घर आऊँ। यहाँ रहकर अब क्या करूँगी ?

देवीदीन ने करुणा भरी हुई आँखों से उसे देखकर कहा——नहीं, अब अभी मैं न जाने दूँँगा। तुम्हारे बिना हमारा यहाँ पल——भर जी न लगेगा। बुढ़िया तो रो-रोकर परान ही दे देगी। अभी यहाँ रहो, देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रुपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूंँ। अपने रोजगार की बात दूसरी ही है। इसमें आदमी कभी थकता नहीं। नौकरी में जहाँ पाँच छ: घण्टे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयाँ आने लगी।

रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिये किसी तरह राजी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भाँति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विकल हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी ? उसके हृदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी ! उसे रमा पर जरा भी दया न आती थी, उससे रत्ती भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी——तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे खून से रंगे हुए हाथों के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़े जायेंगे ! जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो ! कायर!

जालपा का मुखमण्डल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गयी। वह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त मुझे झब्बेदार पगड़ी बाँधे 
                                     

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