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छोटे-छोटे बच्चे हैं, बुढ़िया मां है, और औरत। यहाँ किसी स्कूल में मास्टर था। एक मकान किराये पर लेकर रहता था। उसी की खराबी है।

जालपा ने पूछा -- उसके घर का पता लगा सकते हो?

'हाँ, इसका पता लगाना कौन मुशकिल है।'

जालपा ने याचना-भाव से कहा -- तो कब चलोगे ? मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। अभी तो वक्त है। चलो, जरा देखें।

देवीदीन ने आपत्ति करके कहा -- पहले मैं देख तो आऊँ। इस तरह उटक्करलैस मेरे साथ कहाँ-कहाँ दौड़ती फिरोगी ?

जालपा ने मन को दबाकर लाचारी से सिर झुका लिया और कुछ न बोली।

देवीदीन चला गया। जालपा फिर समाचार-पत्र देखने लगी; पर उसका ध्यान दिनेश की ओर लगा हुआ था। बेचारा फाँसी पा जायगा। जिस वक्त उसने फाँसी का हुक्म सुना होगा, उसकी क्या दशा हुई होगी। उसकी बूढ़ी माँ और स्त्री यह खबर सुनकर छाती पीटने लगी होंगी। बेचारा स्कूल मास्टर ही तो था, मुश्किल से रोटियाँ चलती होंगी। और क्या सहारा होगा? उनकी विपत्ति की कल्पना करके उसे रमा के प्रति ऐसी उतेजनापूर्ण घृणा हुई कि वह उदासीन न रह सकी। उसके मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इस वक्त वह आ जाये तो धिक्कारूँ; कि वह भी शायद याद करें। तुम मनुष्य हो ? कभी नहीं। तुम मनुष्य के रूप में राक्षस हो, राक्षस ! तुम इतने नीच हो, कि उसको प्रगट करने के लिए कोई शब्द नहीं है। तुम इतने नीच हो, कि आज कमीने-से-कमीना आदमी भी तुम्हारे ऊपर थूक रहा है। तुम्हें किसी ने पहले ही क्यों न मार डाला ? इन आदमियों की जान तो जाती ही; पर तुम्हारे मुंह में कालिख न लगती ! तुम्हारा इतना पतन हुआ कैसे ! जिसका पिता इतना सच्चा, इतना ईमानदार हो, वह इतना लोभी, इतना कायर !

शाम हो गयी पर देवीदीन न आया। जालपा बार-बार खिड़की पर खड़े हो-होकर इधर-उधर देखती थी; पर देवीदीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गये और देवी न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रुकी और रमा ने उतरकर जग्गो से पूछा -- सब कुशल-मंगल है न, दादी! दादा कहाँ गये हैं ?
                                   

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