जालपा ने फिर कहा-मेरी सखियां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गयीं। शहजादी तो खिड़को के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जब तुम अन्दर गये थे, तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिये थे, याद है।
रमा ने कोई जवाब न दिया।
जालपा–अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे अच्छी थी, जिसके गाल पर एक तिल था, तुमने उसकी ओर बड़े प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे मर गयी थी। मुझसे कहने लगी, जीजा तो बड़े रसिक जान पड़ते है। सखियों ने उसे खूब चिड़ाया, बेचारी रुघाँसी हो गयी। याद है।
रमा ने मानो नदी में डूबते हुए कहा- मुझे तो याद नहीं आता।
जालपा--अच्छा, अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाजार की तरफ गये थे कि नहीं ?
रमा ने सिर झुकाकर कहा-आज तो फुरसत नहीं मिली।
जालपा-जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी। रोज होले हवाले करते हो। कल ला दोगे न?
रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है ? वह इतना व्यग्र हुआ कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अन्त कर दे।
आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके सीधे से उठा, पर निद्रा की गोद में सोये हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक जङ खड़ा मुग्ध नेत्रों से जालपा के निद्रा-बिहसित मुख की ओर देखता रहा।कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।
जालपा ने चौंककर पूछा--कहाँ जाते हो, क्या सबेरा हो गया ?
रमा-अभी तो बड़ी रात है।
जालपा--तो तुम बैठे क्यों हो ?