दारोगा ने कई बार पुकारा, जरा सुनिए, बात तो सुनिए, लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। जरा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर, और कभी उस पटरी पर जा जाकर बंगलों के नम्बर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नम्बर देखकर वह रूक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई आदमी निकले, तो उससे पूछूँ , साहब है या नहीं। अन्दर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। खयाल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना, कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवायी, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सजा से बचने के लिए इतना बड़ा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गये, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहां गयी थी, तो उसका मेरे पास क्या जबाव है ? ख्वाहमख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ बनाया जाऊँगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में कूद जाना, तलवार के सामने खड़ा हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गये हैं, रक्त की नदियाँ बह गयी हैं, प्राणों की होली खेल डाली गयी है ! उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिये। शायद जेल की सजा से वह इतना भयभीत न होता।
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रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली। वह स्वप्न देख रहा था——दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी। चारों ओर हलचल मच गयी। वह औरत जालपा थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था। तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलायी। रमा घबराकर उठ बैठा। देखा तो दारोगा और इंसपेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आराम कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं।