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रमा-कुछ नहीं, जरा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बाँहें डाल दी और उसे सुलाकर कहा-तुम इस तरह मुझपर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊँगी। न जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो, या मंत्र पढ़ते हो, कि मेरा मन चंचल हो जाता है। वासन्ती सच कहती थी, पुरुषों को अाँख में टोना होता है।

रमा ने फूटे हुए स्वर में कहा-टोना नहीं कर रहा हूँ, आँखों की प्यास बुझा रहा हूँ। दोनों फिर सोये, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिन्ता में मग्न।

तीन घंटे और गुजर गये, द्वादशी के चाँद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात को शीतल समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागनेवाला बाजार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भांति-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था, और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज कान में आयी, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुँचा। गहनों का सन्दूकचा आलमारी में रखा हुआ था। रमा ने उसे उठा लिया, और थर-थर कापता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छाँटकर निकाल लेता।

दयानाथ नीचें बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा-कौन ?

रमा ने अोठ पर ऊँगल रखकर कहा-मैं हूँ। यह सन्दूकची लाया हूँ। रख लीलिये।

दयानाथ सावधान होकर बैठ गये। अभी तक केवल उनको आँखें जागी थी, अब चेतना भी जाग्रत हो गयी। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी उन्होंने समझा था, कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे पूरा भी कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से सांठ-गांठ करना उनकी अन्तरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछा-इसे क्यों उठा लाये ?

रमा ने धृष्ठता से कहा-आप ही का तो हुक्म था !

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