पृष्ठ:ग़बन.pdf/२९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

४५


एक महीना और निकल गया। मुकदमे के हाइकोर्ट में पेश होने की तिथि नियत हो गयी है। रमा के स्वभाव में फिर वही पहले की-सी भीरुता और खुशामद आ गयी है, अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा पहले से बढ़ गयी है, बिलासिता ने मानो पंजे में दबा लिया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या जोहरा भी आ जाती है, जिसका गाना वह बड़े शौक से सुनता है।

एक दिन उसने बड़ी हसरत के साथ जोहरा से कहा-मैं डरता हूँ, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़ जाय। उसका नतीजा इसके सिवा और क्या होगा कि रो-रोकर जिन्दगी काटूं। तुमसे वफ़ा की उम्मीद क्या हो सकती है !

जोहरा दिल में खुश होकर अपनी बड़ी-बड़ी रतनारी आँखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली-हाँ साहब, हम वफ़ा क्या जानें, आखिर वेश्या ही तो ठहरीं! बेवफ़ा भी कहीं वफादार हो सकती है ?

रमा ने आपत्ति करके पूछा-क्या इसमें कोई शक है ?

जोहरा-नहीं, जरा भी नहीं ! आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे दिल लेकर आते हैं, पर हम उसकी जरा भी कद्र नहीं करतीं। यही बात है न ?

रमा०–बेशक।

जोहरा-मुआफ कीजिएगा, आप मर्दों की तरफ़दारी कर रहे हैं। हक यह है कि वहाँ आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज गम गलत करने के लिए, महज आनंद उठाने के लिए। जब आपको वफा की तलाश ही नहीं होती, तो यह मिले क्योंकर ? लेकिन इतना मैं जानती हूँ, कि हममें जितनी बेचारियाँ मर्दों की बेवफ़ाई से निराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती है, उनका पता अगर दुनिया को चले, तो आँखें खुल जाय। यह हमारी भूल है कि तमाशबीनों से वफा चाहते हैं, चोल के घोंसले में मांस ढूंढते हैं ! पर प्यासा आदमी अन्धे कुएँ की तरफ दौड़े, तो मेरे ख़याल में उसका कोई कसूर नहीं।

उस दिन रात को चलते वक्त जोहरा ने दारोगा को खुशखबरी दी,

२८६
ग़बन