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कितना कठिन हो जायगा। वह पग-पग पर अपना धर्म और सत्य लेकर खड़ी हो जायगी और उसका जीवन एक दीर्घ तपस्या, एक स्थायी साधना बनकर रह जायेगा। सात्विक जीवन कभी उसका आदर्श नहीं रहा। साधारण मनुष्यों की भांति वह भी भोग विलास करना चाहता था। जालपा की ओर से हटकर उसका विलासासक्त मन प्रबल वेग से जोहरा की ओर खिंचा। उसको व्रत-धारिणी वेश्याओं के उदाहरण याद आने लगे। उसके साथ ही चंचलवृत्ति की गृहिणियों की मिसालें भी आ पहुँची। उसने निश्चय किया, यह सब ढकोसला है, न कोई जन्म से निर्दोष है, न कोई दोषी। यह सब परिस्थिति पर निर्भर है।

जोहरा रोज आती और बन्धन में एक गांठ और देकर चली जाती। ऐसी स्थिति में संयमी युवक का आसन भी डोल जाता, रमा तो बिलासी था। अब तक वह केवल इसलिए इधर-उधर न फटक सका था, कि ज्योंही उसके पंख निकले, जालिये ने उसे अपने पिंजरे में बन्द कर दिया। कुछ दिन पिंजरे से बाहर रहकर भी उसे उड़ने का साहस न हुआ। अब उसके सामने एक नवीन दृश्य था। वह छोटा-सा कुलियोंवाला पिंजरा नहीं, बल्कि एक फूलों से लहराता हुआ बाग जहां की कैद में स्वाधीनता का आनन्द था। यह इस बाग़ में क्यों न क्रीड़ा का आनन्द उठाये !

रमा ज्यों-ज्यों जोहरा के प्रेम-पाश में फंसता जाता था, पुलिस के अधिकारी वर्ग उसकी ओर से निःशंक होते जाते थे। उसके ऊपर जो कैद लगायी गई थी, वह धीरे-धीरे ढीली होने लगी, यहाँ तक कि एक दिन डिप्टी साहब शाम को सैर करने चले तो रमा को भी मोटर पर बिठा लिया। जब मोटर देवीदीन की दुकान के सामने से होकर निकली, तो रमा ने अपना सिर इस तरह भीतर खींच लिया कि किसी की नजर न पड़ जाय ! उसके मन में बड़ी उत्सुकता हुई कि जालपा है या चली गयी; लेकिन वह अपना सिर बाहर न निकाल सका। मन में वह अब भी यही समझता था कि मैंने जो रास्ता पकड़ा है, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है। लेकिन यह जानते हुए भी वह उसे छोड़ना न चाहता था। देवीदीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झुक जाता, वह किसी दलील से

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