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अपना पक्ष सिद्ध न कर सकता। उसने सोचा; मेरे लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि इनसे मिलना-जुलना छोड़ दूंँ। उस शहर में तीन प्राणियों को छोड़कर किसी चौथे आदमी से उसका परिचय न था, जिसकी आलोचना या तिरस्कार का उसे भय होता !

मोटर इधर उधर घूमती हुई हावड़ा ब्रिज की तरफ़ चली जा रही थी, कि सहसा रमा ने एक स्त्री को सिर पर गंगा-जल का कलसा रखे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे थे और कुशांगी ऐसी थी कि कलसे के बोझ से उसकी गर्दन दबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से मिलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहाँ क्या करने आवेगी ? मगर एक ही पल में कार और आगे बढ़ गयी और रमा को उस स्त्री का मुंँह दिखायी दिया। उसकी छाती धक्-से हो गयी। यह जालपा ही थी। उसने खिड़की के बगल में सिर छिपा कर गौर से देखा। बेशक जालपा थी, पर कितनी दुर्बल ! मानो कोई वृद्धा, अनाथ हो। न वह कान्ति थी, न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गर्व। रमा हृदय-हीन न था, उसकी आंखें सजल हो गयी। जालपा इस दशा में और मेरे जीते जी ! अवश्य देवीदीन ने उसे निकाल दिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना निर्वाह कर रही होगी। नहीं देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने खुद उसके आश्रय में रहना स्वीकार न किया होगा। मानती तो है ही नहीं। कैसे मालूम हो क्या बात है?

मोटर दूर निकल आयी थी। रमा की सारी चंचलता, सारी भोग-लिप्सा गायब हो गयी थी। मलिन-वसना, दुःखिनी जालपा की वह मूर्ति आँखों के सामने खड़ी भी। किससे कहे ? क्या कहे ? यहाँ कौन अपना है। जालपा का नाम भी जबान पर आ जाय, तो सब के सब चौंक पड़ें और फिर घर से निकलना बन्द कर दें। ओह ! जालपा के मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आंँखों में कितनी निराशा! आह, उन सिमटी हुई आँखों में जले हए हृदय से निकलनेवाली कितनी आहें सिर पर पीटती हुई मालूम होती थीं मानो उन पर हँसी कभी आयी ही नहीं, मानो वह कली बिना खिले ही मुरझा गयी।

कुछ देर के बाद जोहा आयी, इठलाती, मुस्कराती, लचकाती, पर रमा आज उससे भी कटा रहा।

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