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सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अंधकारमय घाटियांँ सामने आ जाती कभी आशा की लहराती हुई हरियाली। जोहरा गयी भी होगी ! यहाँ से तो लंबे-चौड़े वादे करके गई थी। उसे क्या गरज है ? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो न देगी ? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाये तो बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाये आफत या जाय। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृति हो सकती है? कभी नहीं। अगर जोहरा इतनी बेवफ़ा, इतनी दगाबाज है, तो यह दुनिया रहने के लायक नहीं, जितनी जल्द आदमी मुंह में कालिख लगा डूब मरे, उतना ही अच्छा है। नहीं जोहरा मुझसे दगा न करेगी। उसे वह दिन याद आये, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा उसकी जेब टटोलती थी और रुपये निकाल लेती थी। वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गयी। तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना करने की वस्तु है। जालपा, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ: जिस ऊँचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहाँ तक पहुँचने की मुझमें शक्ति नहीं है। वहाँ पहुँचकर शायद चक्कर खाकर गिर पडूंँ। मैं अब भी तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाता हूँ। मैं जानता हूँ, तुमने मुझे अपने हृदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गयी हो, तुम्हें अब न मेरे डूबने का दुःख है न तैरने की खुशी; पर शायद अब भी मेरे मरने या किसी घोर संकट में फंस जाने की खबर पाकर तुम्हारी आँखों से आंँसू निकल आयेंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हा! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूँ।

रमा को अब अपनी उस गलती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उस ने जालपा की बात न मानकर की थी। अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान बदल दिया होता, धमकियों में न आता, हिम्मत मजदूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती। उसे यह विश्वास था, जालपा के साथ यह सारी कठिनाइयाँ झेल ले जाता। उसकी श्रद्धा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांँसी भी हो जाती, तो वह हंँसते-हंँसते उस पर चढ़ जाता ! मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं,

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