पृष्ठ:ग़बन.pdf/३००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जालपा की खातिर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैद भोगनी ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो वह कहीं अच्छा है कि हंँस-हंँस भोगा जाय। आखिर पुलिस अधिकारियों के दिल में अपना विश्वास जमाने के लिए वह और क्या करता। यह दुष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झूठा मुकदमा चलाकर उसे सजा दिलाते। वह दशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बल था, सब अपमान सह सकता था; जालपा तो शायद प्राण ही दे देती।

उसे आज ज्ञात हुआ कि वह जालपा को नहीं छोड़ सकता, और जोहरा को त्याग देना भी उसके लिए असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दोनों रमनियोंं को प्रसन्न रख सकता था? क्या इस दशा में जालपा उसके साथ रहना स्वीकार करेगी ? कभी नहीं। वह शायद उसे कभी नहीं क्षमा करेगी। अगर उसे यह मालूम भी हो जाय कि उसी के लिए वह यह यातना भोग रहा है, तो भी वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे लिए तुमने अपनी आत्मा क्यों कलंकित किया? मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी।

वह दिन भर इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा। आंँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया. किसी बात की परवाह न थी। अखबार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा; मगर किसी काम में चित्त न लगा। आज दारोगाजी भी नहीं आये। या तो रात की घटना से रुष्ट, या लज्जित थे। या कहीं बाहर चले गये। रमा ने किसी से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं।

सभी दुर्बल मनुष्यों की भांँति रमा भी अपने पतन से लज्जित था। वह जब एकान्त में बैठता, तो उसे अपनी दशा पर दुःख होता-क्यों उसकी विलास-वृत्ति इतनी प्रबल है ? वह इतना विवेक-शून्य न था कि अधोगति में भी प्रसन्न रहता; लेकिन ज्योंही और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, जोहरा सामने आकर बैठ जाती, उसका सारा विवेक और धर्म-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता।

रात के दस बज गये, पर जोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक बन्द हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही लेकिन फिर भी उसके कान लगे हुए थे ! क्या बात हुई ? क्या जालपा उसे मिली ही नहीं, या वह

ग़बन
२९५