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से फूल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मजबूत है।

रमा ने बेदिली से पूछा है कहाँ ? क्या करती है ? . ज़ोहरा-उसी दिनेश के घर है जिसको फांसी की सजा हो गयी है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और मां है। दिन भर उन्हीं बच्चों को खेलाती है, बुढ़िया के लिए नदी से पानी लाती है, घर का सारा कामकाज करती है और उनके लिए बड़े-बड़े आद.मयों से चन्दा मांग कर ली है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद श्री; न रुपये थे। लोग बड़ी तकलीफ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें काम तो देता। जिसने साथी सोहबती धे, सब के सब मुँह छिपा बैठे। दो-तीन फ़ाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला लिया।

रमा की सारी बेदिली काफूर हो गयी। जूना छोड़ दिया और कुरसी पर बैठकर बोला-तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से वताओ; तुमने तो बीच में से शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुंची ? पता कैसे लगा ?

जोहरा- कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटिया के पास गयी। उसने दिनेश के घर का पता दिया। चटपट पहुँची।

रमा०-तुमने जाकर उसे पुकारा ? तुम्हें देखकर कुछ चौंको की नहीं ? कुछ झिझकी तो जरूर होगी!

जोहरा मुस्कराकर बोली-मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गयी और ब्रह्म-समाजी लेडी का स्वांग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन-सी बात है जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हुँ ,या क्या हूँ और बाह्म लेडियों को देखती हूँ, कोई उनकी तरफ आँखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिलकुल नहीं पहनतो, फिर भी सब मेरी तरफ और फाड़-फाड़कर देखते हैं। मेरो असि्लयत नहीं छिपती। यही खौफ़ मुझे था, कि कहीं जालपा भांप न जाय; लेकिन मैंने दांत खूब साफ कर लिये थे, पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कालेज की लेंडी-टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची। ऐसी मूरत बना ली, कि वह क्या, कोई भी न भांँप सकता

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