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वहाँ मुसलमान औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ। आपसे कभी कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहाँ रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊँगी। आपके पास घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमियत सीख जाऊँगी।

जालपा ने शरमाकर कहा——तुम तो मुझे बनाने लगीं। कहाँ तुम, कॉलेज को पढा़नेवाली, कहाँ मैं अपढ़ गँवार औरत। तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊँगी। जब जी चाहे, यहीं चली आना। यही मेरा घर समझो।

मैंने कहा——तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रखी है। बड़े अच्छे खयालों के आदमी होंगे : किस दफ्तर में नौकर हैं ?

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा——पुलिस में उम्मेदवार हैं।

मैंने ताज्जुब से पूछा——पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहाँ आने की आजादी देते हैं ?

जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली——वह मुझसे कुछ नहीं कहते....मैंने उनसे यहाँ आने की बात नहीं कही....वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिसवालों के साथ रहते हैं !

उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिये। फिर भी उन्हें शक हो रहा था, कि इनमें कोई जवान इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी हो होकर दूसरी तरफ़ ताकने लगीं।

मैंने पूछा——तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुखबिर से करा सकती हो, जिसने कैदियों के खिलाफ गवाही दी है ?

रमानाथ की आंखें फैल गयी और छाती धक-धक करने लगी। जोहरा बोली——यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आँखों से देखकर पूछा——तुम उनसे मिलकर क्या करोगी !

मैंने कहा——तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं ? मैं उनसे यही पूछना चाहती हूँ, कि तुमने इतने आदमियों को फंसाकर क्या पाया ? देखूँगी वह क्या जबाब देते हैं।

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली——वह यह कह सकता है,

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ग़बन