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खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोये देती हूँ। और खूद बरतन मांजने लगीं। उसकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गयी और माँजे बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहाँ से हट जाने के लिए कहा, पर मैं न हटी। बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा- मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझे शर्म आती है। तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहाँ आना तो तुम्हारी सजा हो गयी; तुमने ऐसा काम अपनी जिन्दगी में क्यों किया होगा। मैंने कहा -तुमने भी तो कभी न किया होगा; जब तुम करती हो, तो मेरे लिए क्या हर्ज है।

जालपा ने कहा- मेरी और बात है। मैंने पूछा-क्यों जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो ?

जालपा ने कहा- महरियाँ आठ-आठ रुपये मांगती हैं। मैं बोली–मैं साठ रुपये महीने दे दिया करूँगी।

जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन ! आह ! कितनी पाकीज़ा थी, कितनी पाक करने वाली ! उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी जिन्दगी कितनी जलील, कितनी काबिलेनफरत मालूम हो रही थी ! उन बरतनों के धोने में जो आनन्द मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती!

बरतन धोकर उठी, तो बुढ़िया के पाँव दबाने बैठ गयीं। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोली- तुम्हें देर हो रही हो तो जाओ, कल फिर आना।

मैंने कहा- नहीं मैं, तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाकर उधर ही से निकल जाऊंगी।

गरज नौ बजे के बाद वह वहाँ से चलीं। रास्ते में मैंने कहा जालपा,तुम सचमुच देवी हो।

जालपा ने छूटते ही कहा-ज़ोहरा, ऐसा मत कहो। मैं खिदमत नहीं कर रही हूँ, अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हैं। बहुत दुःखी हूँ। मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में न होगी।

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ग़बन