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को हाँ-हाँ करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दूकानदार से पेश पाता? १५०० में २५०० के गहने भी चले गये, ऊपर से ५० रु० और बाकी रह गये। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बन्द रही; मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फूट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगा नहीं व्यर्थ का झंझट भले ही होगा। जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था: उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था; और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी? जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूहे बनवाये गये थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती, गहनों ही की चर्चा करती। तेरा दुलहा तेरे लिए बड़े सुन्दर गहने लायेगा। टुमुक-टुमुककर चलेगी।

जालपा पूछती-चांदी के होंगे, कि सोने के दादी जी?

दादी कहती-सोने के होंगे बेटी, चाँदी के क्यों लावेगा? चांदी के लावे तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती-चाँदी के तो लावेगा ही। सोने के उसे कहीं मिले जाते हैं।

जालपा रोने लगती, इस पर बुढ़ी दादी, मानकी, घर की महरिया, पड़ोसिने और दीनदयाल सब हंसते। उन लोगों के लिए यह बिनोद का अशेष भंडार था।

बालिका जब जरा और बड़ी हुई तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ाये जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, होली में बैठाकर बिदा करती, कभी-कभी दुलहिन अपने गुड्डे दूल्हे से गहनों के लिए मांग करती, गुड्डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे चन्द्रहार लाकर दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढ़ियों में बैठकर गहने की बातें सुनने लगी। महिलाओं के इस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा हो

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