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था। वह इतने रुपये जमा कर देना चाहती है, कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो। दो सौ रुपये से ज्यादा जमा कर चुकी है। मैंने भी पाँच रुपये दिये। मैंने दो-एक बार जिक्र किया, कि आप इन झगड़ों में न पड़िये अपने घर चली जाइये; लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूँ, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब-जब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, सोचा वह बात सुनना भी नहीं चाहती। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पायी। एक बात है, कहो तो कहूँ ?

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा-क्या बात है?

जोहरा-डिप्टी साहब से कह दूँ, जालपा को इलाहाबाद पहुँचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस, औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जायगी। वहाँ गाड़ी तैयार मिलेगी; वह उसमें बैठा दी जायेंगी। या कोई और तरकीब सोचो।

रमा ने जोहरा की आंखों से आंखें मिलाकर कहा-क्या यह मुनासिब होगा ?

जोहरा ने शरमाकर कहा- मुनासिब तो न होगा। रमा में चटपट जूते पहन लिये और जोहरा से पूछा-देवीदन के ही घर पर रहती है ना ?

जोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली-तो क्या इस वक्ल जाओगे!

रमा०-हां, जोहरा इसी वक्त चला जाऊँगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहाँ मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।

जोहरा -मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।

रमा०-सब सोच चुका, ज्यादे-से-ज्यादे तीन-चार साल की कैद दरोगा-बयानी के जुर्म में। बस, अब रूखसत ! भूल मत जाना जोहरा, शायद फिर कभी मुलाकात हो !

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा-हुजूर ने दारोगाजी को इत्तला कर दी है?

रमा-इसकी कोई जरूरत नहीं।

ग़बन
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