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जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त खाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज दी। देवीदीन उनकी आवाज पहचान गया, बोला-भैया हैं शायद।

जालपा-कह दो, यहाँ क्या करने आये हैं। वहीं जायें।

देवी-नहीं बेटी, जरा पूछ तो लू,क्या कहते हैं। इस बखत कैसे उन्हें छुट्टी मिली?

जालपा-मुझे समझाने आये होंगे और क्या। मगर मुँह धो रखें!

देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अन्दर आकर कहा-दादा, तुम मुझे यहाँ देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगें। एक घण्टे की छुट्टी लेकर आया हूँ। तुम लोगों से अपने बहुत-से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर है?

देवीदन बोला-हाँ, है तो, अभी आई हैं। बैठो, कुछ खाने को लाऊँ।

रमा- नहीं, मैं खाना खा चुका हूँ। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूँ।

देवी०- वह मानेगी नहीं, नाहक शर्मिन्दा होना पड़ेगा। माननेवाली औरत नहीं है।

रमा०-मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहती ? जरा जाकर पूछ लो।

देवी०- इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो है, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था, वैसे अब भी है।

रमा-नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊँगा।

देवीदीन ने ऊपर जा करके कहा-तुमसे कुछ कहना चाहते हैं बहू !

जालपा मुंह लटकाकर बोली-तो कहते क्यों नहीं, मैंने क्या ज़बान , बन्द कर दी है ? जालपा ने यह बात इतने ज़ोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी ! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला-वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहती, तो कोई जबरदस्ती नहीं 1 मैंने अब साहब से सारा कच्चा चिट्टा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूँ। मेरी वजह से

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