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विशाल, कितना तेजोमय! विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी, त्यागिनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुँच गयी थी-कितना रम्य दश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास। इसकी सुगन्ध में, इसकी रम्यता में, देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतम स्थान पर पहुँचकर देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है; इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इसी प्रेम ने उसे बियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया- उसे अभय-दान दे दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका प्खंअड विभव तुच्छ है।

इतने में जोहरा आ गयी। जालपा को पटरी पर खड़ी देखकर बोली-यहाँ कैसे खड़ी हो बहन? आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

दोनों ऊपर चली गयीं।

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दारोगा को भला कहाँ चैन? रमा के जाने के बाद एक घण्टे तक उसका इंतजार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए देवीदीन के घर पहुँचे। यहाँ मालूम हुआ, कि रमा को यहाँ से गये आधे घंटे के ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। यहाँ रमा का अब तक पता न था। समझे देवोदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रखा होगा। सरपट साइकिल दौड़ाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुँचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा-विश्वास न हो, घर को खाना-तलाशी ले लीजिए, और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बड़ा भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है, एक ऊपर!

दारोगा ने साइकिल से उतर कर कहा-तुम बतलाते क्यों नहीं, वह कहाँ गये?

देवी०- मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊँ साहब ! यहाँ आये, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गये।

दारोगा- वह कब इलाहाबाद जा रही है ?

देवी०-इलाहाबाद जाने की तो बाबू जी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहाँ से न जायेंगी।

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