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पुलिस कमिश्नर ने यहांँ तक कहा कि इससे सारा पुलिस विभाग बदनाम हो जायगा, लेकिन जज ने किसी की न सुनी। झुठे सबूतों पर पन्द्रह आदमियों की जिन्दगी बरबाद करने की : जिम्मेदारी सिर पर लेना उसकी आत्मा के लिए असह्य था। उसने हाईकोर्ट को सूचना दी और गवर्नमेंट को भी।

इधर पुलिसवाले रात-दिन रमा की तलाश में दौड़-धूप करते रहते थे, लेकिन रमा न जाने कहां जा छिपा था, कि उसका पता ही न चलता था।

हफ्तों सरकारी कर्मचारियों में लिखा-पढ़ी होती रही। मानों कागज स्याह कर दिये गये। उधर समाचार पत्रों में इस मामले पर नित्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने जालपा से मुलाकात की, और उसका बयान छाप दिया- दूसरे जोहरा का बयान छाप दिया। इन दोनों बयानों ने पुलिस की वखिया उधेड़ दी। जोहरा ने तो लिखा कि मुझे पचास रुपये रोज इसलिए दिये जाते थे कि रमानाथ को बहलाती रहूँ और कुछ सोचने या विचार करने का अवसर न मिले। पुलिस ने इन बयानों को पढ़ा, तो दांँत पीस लिये। जोहरा और जालपा, दोनों कहीं और जा छिपी, नहीं तो पुलिस ने जरूर उनको शरारत का मजा चखाया होता।

आखिर दो महीने के बाद फैसला हुआ। इस मुकदमे पर विचार करने के लिए एक सिविलियन नियुक्त किया गया। शहर के बाहर एक बंँगले में विचार शुरू हुआ, जिसमें ज्यादा भीड़-भाड़ न हो। फिर भी रोज दस-बारह हजार आदमी जमा हो जाते थे। पुलिस ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, कि मुलजिमों में कोई मुखबिर बन जाय, पर उसका उद्योग सफल न हुआ। दारोगा जी चाहते तो नई शहादतें बना सकते थे, पर अपने अफसरों की स्वार्थपरता पर वह इतने खिन्न हुए कि दूर से तमाशा देखने के सिवा और कुछ न किया। जब सारा यश अफसरों को मिलता है और सारा अपयश मातहतों को, तो दारोगाजी को क्या ग़रज पड़ी थी कि नई शहादतों की फ़िक्र में सिर खपाते। इस मुआमले में अफसरों ने सारा दोष दरोगा ही के सिर मढ़ा। उन्हीं की लापवाही से रमानाथ हाथ से निकला। अगर ज्यादा सख्ती से निगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे खत लिख सकती, और यह कैसे रात को उससे मिल सकता।

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