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ऐसी दशा में मुकदमा उठा लेने के सिवा और क्या किया जा सकता था ! तबेले की बला बन्दर के सिर गयी। दारोगा तनज्जुल हो गये और नायब-दारोगा का तराई में तबदला कर दिया गया।

जिस दिन मुलजिमों को छोड़ा गया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुलिस ने दस बजे रात को उन्हें छोड़ा, पर दर्शक जमा हो ही गये। लोग जालपा को भी खींच ले गये। पीछे-पीछे देवीदीन भी पहुंचा। जालपा पर फूलों की वर्षा हो रही थी और 'जालपा देवी की जय !' से आकाश गूंज रहा था।

मगर रमानाथ की परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी। उन पर दरोगबयानी का अभियोग चलाने का निश्चय हो गया।

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उसी बंगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था, लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खड़ा था। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आयी हुई थीं। पेशी से दस-पन्द्रह मिनट पहले जालपा और जोहरा भी बन्द गाड़ियों में आ पहुँचें। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गयी।

पुलिस की शहादतें शुरू हुईं। डिप्टी सुपरिटेंडेंट, इंसपेक्टर, दारोगा, नायाब दारोगा-सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकीलों ने जिरहें भी की, पर इन कार्रवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। जाब्ते की पाबन्दी की जा रही थी। पर इनके बाद रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। कोई बात न छिपाई। वकील के पूछने पर उसने कहा—— जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आँखें खोली, और उससे भी ज्यादा जोहरा के सौजन्य और निष्कपट व्यवहार ने। मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ, कि मुझे उस तरफ़ से प्रकाश मिला, जिधर से औरों को अन्धकार मिलता है। विष में मुझे सुधा प्राप्त हो गयी।

इसके बाद सफ़ाई की तरफ से देवीदीन, जालपा और जोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल किया, पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते।

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