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नहीं थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाये, कितने दाम लगे, ठोस है या पोल, जड़ाऊ हैं या सादे, किस लड़की के विवाह में कितने गहने आये-इन्हीं महत्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक, इतना ग्राह्य हो ही न सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया, उसकी दशा ज्यों-को-त्यों है, न कुछ खाती-पीती है, न किसी से हँसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिने समझाकर हार गयीं, दीनदयाल आकर समझा गये; पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है यहाँ तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है! सब-के-सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है, तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिसे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता; पर यह कुछ कहें भी? इनके मुंह में तो दही जमा है। मुझसे प्रेम होता तो यों निश्चिन्त न बैठे रहते। जब तक सारी चीज न बनवा लेते, रात को नींद न आती। मुंह देखे की मुहब्बत है, माँ-बाप से कैसे कहें, जायेंगे तो अपनी ओर, मैं कौन हूँ?

वह रमा से केवल खिंची न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता, तो दो-चार जली-कटी सुना देती। बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता। गरीब अपनी ही लगायी हुई भाग में जला जाता था। अगर वह जानता कि उन डीगों का यह फल होगा, तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहाँ सुबह से शाम तक हंसी-कहकहे, सैर-सपाटे में कटते थे, कहाँ अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गयी। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता, यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते; मगर इन्हें क्या फिक्र? मैं चाहे मर जाऊँ पर यह अपनी टेक नहीं

ग़बन
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