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कोड़ा और विनोद की गोद में खेलती हुई, चिन्तामय, संघर्षमय, अंधकारमय भविष्य की ओर चली जा रही हो। देवी और रमा ने यहीं प्रयाग के समीप आकर आश्रय लिया है।

तीन साल गुजर गये हैं, देवीदीन ने जमीन ली, बाग लगाया, खेती जमाई, गाय-भैसें खरीदी और कर्मयोग में, अविरत उद्योग में, सुख, सन्तोष और शान्ति का अनुभव कर रहा है। उसके मुँह पर अब वह जर्दी, वह झुर्रियाँ नहीं हैं, बल्कि एक नई स्फूर्ति, एक नई कान्ति झलक रही है।

शाम हो गयी है, गायें, भैसें हार से लौटीं। जग्गो ने उन्हें खूंटे से बांधा और थोड़ा-थोड़ा भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डाँठ लादे हुए आ पहुँचे। दयानाथ ने बरगद के नीचे जमीन साफ कर रखी है। वहीं डांठे उतारी गयीं। यही इस छोटी-सी बस्ती का खलिहान है। दयानाथ नौकरी से बरखास्त हो गये थे और अब देवी के असिस्टेंट हैं। उनको समाचार-पत्रों से अब भी वही प्रेम है, रोज कई पत्र पाते हैं, और शाम को फुर्सत पाने के बाद मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझाते हैं। श्रोताओं में बहुधा आस-पास के गांवों के दस-पाँच आदमी भी आ जाते हैं और रोज एक छोटी-मोटी सभा हो जाती है।

रमा को इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है, कि अब शायद उसे थानेदारी ही नहीं, चुंगी इंसपेक्टरी भी मिल जाय, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, फिर कुछ कसरत करके दूध पीता है और दिन निकलते-निकलते अपनी दवाओं का सन्दूक लेकर आ बैठता है। उसने बैद्यक की कई किताबें पढ़ ली हैं और छोटी-मोटी बीमारियों की दवा दे देता है। दस-पांच मरीज रोज आ जाते हैं, और उसकी कीर्ति दिन दिन बढ़ती जाती है। इस काम से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है, वहाँ कुछ साग-भाजी भी लगी है, कुछ फल-फूलों के वृक्ष हैं और कुछ जड़ी-बूटियां हैं। अभी तो बाग से केवल तरकारी मिलती है; पर आशा है कि तीन-चार साल में नीबू, अमरूद, बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आदि फलों की अच्छी आमदनी होने लगेगी।

देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूँटे से बांध दिया और दयानाथ से बोला- अभी भैया नहीं लौटे ?

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