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दयानाथ ने डाँठों को समेटते हुए कहा- अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है, जमाने का फेर है। कितने सुख से रहती थीं। गाड़ी थी, मोटर थी, बंगला था, दर्जनों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है,वकील साहब ने अच्छी सम्पत्ति छोड़ी थी; मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली।

देवी०-भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता, पर कहती हैं, मैं झूठ अदालत में न बोलूँगी। औरत बड़े ऊँचे विचार की है।

सहसा रामेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोदी में देती हुई देवीदीन से बोली- भैया, जरा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। जोहरा और बहू दोनों रो रही हैं। बच्चा जाने कहाँ रह गये ?

देवीदीन ने दयानाथ से कहा-चलो लाला देखें।

रामेश्वरी बोली—यह जाकर क्या करेंगे,बीमार को देखकर इनकी नानी पहले ही मर जाती है।

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा-रतन बाँस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गयी थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पन्दन प्रदान कर रखा था, उड़ गये थे; केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय प्राण-पद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ सङ्गोत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गयी थी। जोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करूण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नेत्रों से देख रही थी। आज साल-भर से उसने रतन की सेवा शुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएँ संयुक्त हो गयीं। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मैत्री में उसके वंचित हृदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों ही पा लिया।

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