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देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिन्त नेत्रों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा-कितनी देर से नहीं बोली ?

जालपा ने आँखें पोंछकर कहा—अभी तो बोलती थीं। एकाएक आँखें ऊपर चढ़ गयीं और बेहोश हो गयीं। वैद्य जी को लेकर अभी तक नहीं आये?

देवीदीन ने कहा-इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है !

यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली; रतन के सिर पर हाथ फेरा, मुंह में बुदबूदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा-रतन बेटी, आँखें खोलो !

रतन ने आंखें खोल दी और इधर-उधर सकपकाई हुई आँखों से देखकर बोली- मेरी मोटर आई थी न? कहाँ गया वह आदमी ? उससे कह दो थोड़ी देर के बाद लाये। जोहरा, आज मैं तुम्हें अपने बगीचे की सैर कराऊँगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।

जोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी अपने आँसुओं के वेग को न रोक सकी।रतन एक क्षण तक छत की ओर ताकती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुसकराहट के साथ बोली-मैं सपना देख रही थी दादा ?

लोहित आकाश पर कालिमा का पर्दा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।

रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर-रात को लौटे, तो यहाँ मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय-हाय करता है, बल्कि वह शोक जिसमें हम मूक-रुदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ दिल से कभी नहीं उतरता।

रतन के बाद जोहरा अकेली हो गयी। दोनों साथ साथ सोती थीं, बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अब अकेली जोहरा का जी किसी काम में न लगता था। कभी नदी-तट पर जाकर रतन को याद करती और रोती, कभी उन आम के पौधों के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, जिन्हें उन दोनों ने लगाया था, मानो उसका सुहाग लुट गया हो। जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना अवकाश न मिलता था; कि उसके

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