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साथ बहुत उठती-बैठती; और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और रोने लगती।

भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिड़ा हुआ था। जल की सेनाएँ वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रखा था। गंगा गाँवों और कस्बों को निगल रही थी। गाँव-के-गाँव बहते चले जाते थे। जोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कुशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुभव भी न कर सकती थी। लहरें उन्मत्त होकर गरजती, मुँह से फेन निकालती हाथों उछल रही थीं, चतुर फिकैतों की तरह पैतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आगे आतीं, फिर पीछे लौट पड़ती और चक्कर खा फिर आगे को लपकतीं। कहीं कोई झोपड़ा डगमगाता तेजी से बहा जा रहा था, मानों कोई शराबी दौड़ा जाता है; कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाण-युग के जन्तु की भाँति तैरता चला जाता था। गायें और भैसें खाट-तस्ते मानो तिलस्मी चित्रों की भांति आँखों के सामने से निकल जाते थे।

सहसा एक किश्ती नजर आई। उस पर कई स्त्री-पुरुष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। उससे यही मालूम होता था, कि अब उलटी तब उलटी; पर वाह रे साहस! सब अभी भी 'गंगा माता की जय!' पुकारते जाते थे। स्त्रियाँ अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं। जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा? दोनों तरफ़ के आदमी किनारे खड़े, एक तनाव को दशा में हृदय को दबाये खड़े थे। जब किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियाँ फेंकने की कोशिश की जाती; पर रस्सी बीच ही में गिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गयी। सभी प्राणी लहरों में समा गये। एक क्षण कई स्त्री-पुरुष डूबते उतराते दिखाई दिये, फिर निगाहों से ओझल हो गये। केवल एक उजली-सी चीज किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज तक आ गयी। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। जोहरा, जालपा और रमा---तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नजर आता था। दोनों को निकाल लाने के लिये

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