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स्वभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। अपने अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवा और क्या साधन था। उसकी सारी कामनाएँ; सारी वासनाएँ सेवा में लीन हो गयीं। कलकत्ते में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहाँ सभी उसके साथ अपने प्राणों का-सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और रामेश्वरी को यह कहकर शान्त कर दिया गया था, कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। जोहरा ने कलकत्ते में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा माँगी थी। उसे अपने जीवन से घृणा हो गयी थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था।

थोड़ी देर बाद रमा भी पानी से निकले और शोक में डूबे हुए घर की ओर चले। मगर अक्सर वह और जालपा नदी के किनारे आ बैठते और जहाँ जोहरा डूबी थी उस तरफ घण्टों देखा करते। कई दिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही कि शायद जोहरा बच गयी हो और किसी तरफ़ से चली आये; लेकिन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा शोक के रूप में खो गयी। मगर अभी तक जोहरा की सूरत उनकी आँखों के सामने फिरा करती है। उसके लगाये हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा—--यह सब उसकी स्मृति के चिह्न हैं और उनके पास जाकर रमा की आँखों के सामने जोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।

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