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जालपा-मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के !

रमा०-मक्खीचूस न होते, तो इतनी सम्पत्ति कहाँ से आती?

जालपा-मुझे तो किसी को परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है ! दाल-रोटी वहाँ मिल जायेगी। दो-चार सखी-सहेलियाँ है, खेत-खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं,जी बहलता रहेगा।

रमा०-और मेरी क्या दशा होगी, जानती हो ? घुल घुलकर मर जाऊँगा। जब से चोरी हुई है, मेरे दिल पर जैसो गुजरती है, वह दिल ही जानता है। अम्मा और बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, जोर देकर कहा कि दो-चार चीजें तो बनवा ही दीजिये पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं।

जालपा-जब तुम्हारी नौकरी कही लग जाये तो मुझे बुला लेना।

रमा-तलाश कर रहा हूँ। बहुत जल्द मिलनेवाली है। हजारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हाँ, जरा अच्छी जगह चाहता हूँ।

जालपा-मैं इन लोगों का रुख समझती हूँ। मैं भी यहाँ अब दावे के साथ रहूँगी। क्यों, किसी से नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमा०—शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा-इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? कहते शर्म आती हो, तो खत लिख दो।

रमा उछल पड़ा, कितना सरल उपाय था, और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला-हाँ, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई। कल ज़रूर लिखूंगा।

जालपा-मुझे पहुँचाकर आना, तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमा०-तो क्या तुम सचमुच जाओगी ? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका ! इसी बियोग के दुःख मै बैठकर रोऊँगा कि नौकरी ढूंढेगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊँगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठ हुआ है, जिसके लिए यहाँ पड़ा सड़ा करूं ? हटो तो जरा मैं बिस्तर खोल दू़ं।

ग़बन
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