रमा फिर लेट गया, और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए ! उसी वक्त रमानाथ घबड़ाकर उठा और आँखें मलता हुआ बोला-मैं भी चलूंगा।
रमेश -अरे ! मुंह-हाथ तो धो लो भले आदमी !
रमा-आप तो चले जा रहे है।
रमेश-नहीं, अभी १५-२० मिनट तक रुक सकता हूँ तैयार हो जाओ।
रमा- मैं तैयार हूँ। वहाँ से लौटकर भोजन करूँगा।
रमेश- कहता तो हूँ, अभी आध घंटे तक रुका हुआ हूँ।
रमा ने एक मिनट में मुंह धोया, पाँच मिनट में भोजन किया और झटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।
रास्ते में रमेश ने मुसकुराकर कहा-घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रखा है ?
रमा-कह दूँगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।
रमेश-मुझे गालियां दिलाओगे और क्या। फिर कभी न आने पाओगे।
रमा-ऐसा स्त्री भक्त नहीं हूँ। हाँ, यह तो बतलाइए, मुझे अर्जी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा ?
रमेश-और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायेगी ? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पड़ेगी; सुबह-शाम हाजिरी देनी पड़ेगी ! क्या नौकरी मिलना आसान है ?
रमा-तो में ऐसी नौकरी से बाज आया। मुझे तो अर्जी लेकर जाते ही शर्म आती है, खुशामदें कौन करेगा। पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हँसी पाती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डाँट-वाँट तो न बतायेंगे ?
रमेश बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।
रमा- तो फिर मैं घर जाता हूँ। वह सब मुझसे न बर्दाश्त होगा। रमेश-पहले सब ऐसे ही घबराते हैं. मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब