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रमा के जी में तो आया कि साफ कह दूँ-अपना उपदेश आप अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं है! मगर इतना बेहया न था।

दयानाथ ने फिर कहा-यह जगह तो तीस रुपये की थी, तुम्हें बीस क्यों मिले?

रमा॰--नये आदमी को पूरा वेतन कैसे देते? शायद साल छः महीने में बढ़ जाये। काम बहुत है।

दया॰--तुम जवान आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिये।

रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया, और फैशन की कितनी ही चीजें खरीदीं । ससुराल से मिले हुए रुपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्रों से उधार ले लिये। वह साहबी ठाट बना कर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं; महाजन लोग उसका ठाट-बाट देख कर सहम जायेंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है, जब अच्छा ठाट बाट हो सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफी समझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जन्ट हो, तो किसी की हिम्मत न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाये। फटेहाल भिखारी के लिए एक चुटकी बहुत समझी जाती है; लेकिन गेरुये रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रुपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से मित्रता है।

तीसरे दिन रमा कोट पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किये। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब सन्दूक पर रजिस्टर फैलाये बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे बड़े हैं। सामने गाड़ियों, ठेलों और इक्कों का बाजार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौज हो रही है, कहीं चपरासियों में हत्ती-दिल्लगी सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी-मैली दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला-क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बैठाना चाहते हैं। एक अच्छी-सी मेज और कई कुसियाँ भेजवाइए और चपरासियों को

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