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के दिन मुहल्ले की कई युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आयीं; मगर जापला अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव पाया। पड़ोस ही में एक सेठ जी रहते थे, उनके यहाँ बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया जाता था। वहाँ से सास और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गयी, जालपा ने जाने से इनकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक बार भी आभूषण की चर्चा न की; पर उसका एकान्त प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक था। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना सूचीपत्र था जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भाँति-भांति के सुन्दर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी लिखे हुए थे। जालपा एकान्त में इस सूचीपत्र को बड़े ध्यान से देखा करती। रमा को देखते ही वह सूचीपत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हंसी न उड़वाना चाहती थी।

रमा आधी रात के बाद लौटा, तो देखा जालपा चारपाई पर पड़ी है। हँसकर बोला-बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गयीं, बड़ी गलती की।

जालपा ने मुंह फेर लिया, कोई उत्तर न दिया।

रमा ने फिर कहा--यहाँ अकेले पड़े-पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा?

जालपा में तीव्र स्वर में कहा--तुम कहते हो, मैंने गलती की। मैं समझती हूँ, मैंने अच्छा किया। वहाँ किसके मुंह में कालिख लगती?

जालमा ताना तो न देना चाहती थी; पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक कारण यह भी था कि उसे अकेला छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया था। अगर उन लोगों के हृदय होता, तो क्या वहाँ जाने से इन्कार न कर देते?

रमा ने लज्जित होकर कहा--कालिख लगाने की कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो गयी है, और इस जमाने में दो-चार हजार के गहने बनवा लेना मुंह का कौर नहीं है।

चोरी का शब्द जबान पर लाते हुए रमा का हृदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर रह गयी। और कुछ बोलने

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