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तो रमा की उसके आँसू पोंछने के लिए, क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था? मुहल्ले में रोज ही एक न-एक उत्सव होता रहता है, रोज ही पास-पड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती रहेंगी? हँसने बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों की तरह अकेला पड़ा रहना पसन्द करता है? मेरे ही कारण तो इसे यह भोषण यातना सहनी पड़ रही है।

उसने सोचा, क्या किसी सराफ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते?

कई बड़े सराफों से उसका परिचय था; लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता? कहीं वे इन्कार कर दें तो? या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया कि अभा उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रुपये न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहत होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिये।

सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालपा की राय लूं। देखूं वह क्या कहती है। अगर उसको इच्छा है तो किसी सराफ से वादे पर चीजे ले ली जायें; मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट करने के लिए उसे गहनों की कितनी फिक्र है! बोला-तुमसे एक सलाह करना चाहता हूँ। पूछ्रे या न पूछूँ।

जालपा को नींद पा रही थी। आँखें बन्द किये बोली--अब सोने दो भई, सबेरे उठना है।

रमा--अगर तुम्हरी राय हो, तो किसी सराफ से वादे पर गहने बनवा लाऊँ। इसमें कोई हर्ज तो नहीं?

जालपा की आँखें खुल गयीं। कितना कठोर प्रश्न था? किसी मेहमान से पूछना--कहिए तो आपके लिये भोजन लाऊँ, कितनी बड़ी अशिष्टता है! इसका तो आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यह कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना पाव पर नमक छिड़कना था। रमा को और अविश्वास की प्रांखों से देखकर बोली--मैं तो

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