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रमा को आज इसो जधेडधुन में बड़ी रात तक नींद न आयी। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयां पर कितने खिलेंगे! यह मोह स्वप्न देखते-देखते‌ उसे न जाने कब नींद आ गयी।

१२

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिवा। उनके यहाँ भी जन्माष्टमी में झांकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था: पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थीं, उसी को यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते थे। रमा को देखकर बोले--आओजी; रात क्यों नहीं आये? मगर यहाँ गरीबों के घर क्यों आते? सेठ जी को झाँकी कैसे छोड़ देते? खूब बहार रही होगी!

रमा०--आपकी-सी सजावट तो न थी, हाँ और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएँ भी आयी थी! मैं तो चला पाया था, मगर सुना रात भर गाना होता रहा। रमेश०--सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएँ न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया! इन मूखों के हाथों हिन्दू-धर्म का सर्वनाश हो जायेगा। एक तो वेश्याओं का नाच यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में! छिः छिः! न जाने इन गधों को कब अक्ल आयेगी!

रमा०--वेश्याएँ न हों, तो झाँकी देखने जाये ही कौन? सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश०--मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बन्द कर दूँ। वर, फुरसत हो, तो आओ एक-साथ बाजी हो जाये।

रमा०--और आया किसलिए है; मगर आज आपको मेरे साथ जरा सराफ़े तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से गेरा परिचय है। मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश०--चलने को चला चलूंगा; मगर इस विषय में मैं बिलकुल कोरा हूँ? न कोई चीज बनवायो, न खरीदो। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

रमा०--लेना-देना क्या है, जरा भाव-ताव देखूँगा।

रमेश०--मालूम होता है, घर मैं फटकार पड़ी है।

रमा०--जी, बिलकुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती।

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