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यह कहते हुए दयानाथ दफ्तर चले गये। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने निस्पृह बनकर क्या कर लिया, जो मुझे दोष दे रहे हैं? हमेशा पैसे पैसे को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न पहना सके। यह डींग मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती, और जीवन भी सुख से कटता।

रमा घर में गया तो माता ने पूछा--आज कहाँ चले गये थे बेटा, तुम्हारे बाबू जी इसी पर बिगड़ रहे थे?

रमा०--इस पर तो नहीं बिगड रहे थे; हाँ, उपदेश दे रहे थे कि दस्तूरी मत लिया करो, इससे आत्मा दुर्बल होती है और बदनामी होती है।

जागे--तुमने कहा नहीं, आपने बड़ी ईमानदारी की तो कौन-से झंडे गाड़ दिये। सारी जिन्दगी पेट पालते रहे।

रमा०--कहना तो चाहता था, पर चिढ़ जाते। जैसे आप कौड़ो-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं। आपको लेने का शऊर तो है नहीं। जब देखा कि यहाँ दाल नहीं गलती, तो भगत बन गये। यहाँ ऐसे घोंघावसन्त नहीं हैं। बनियों के रुपये ऐंठने के लिए अक्ल चाहिये, दिल्लगी नहीं है। जहाँ किसी ने भगतपन किया और मैं समझ गया बुद्ध है। लेने की तमीज नहीं, क्या करे बेचारा। किसी तरह आँसू तो पोंछे।

जागे०--बस-बस यही बात है, बेटा! जिसे लेना आवेगा, वह जरूर लेगा। इन्हें तो बस घर में कानून बघारना पाता है। और किसी के सामने बात तक तो मुंह से निकलती नहीं, रुपये निकाल लेना तो मुश्किल है।

रमा दफ्तर जाते समय ऊपर कपड़े पहनने गया तो जालपा ने उसे तीन लिफाफे डाक में छोड़ने के लिए दिये। उस वक्त उसने तीनों लिफाफे जेब में डाल लिये, लेकिन रास्ते में उन्हें खोलकर चिट्ठियां पढ़ने लगा। चिट्ठियाँ क्या थी विपत्ति और वेदना का करुण विलाप था जो उसने अपनी तीनों सहेलियों को सुनाया था। तीनों का विषय एक ही था। केवल भावों का अन्तर था--'जिन्दगी पहाड़ हो गयी है, न रात को नींद आती है, न दिन को आराम; पतिदेव को प्रसन्न करने के लिए कभी-कभी हँस-बोल लेती हूँ; पर दिल हमेशा

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