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बरसात के दिन है, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छायी हुई हैं। रह-रहकर रिम-झिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। ग्रामों के बागों में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रही हैं और उनकी माताएं भी। दो-चार झूल रही है, दो-चार झुला रही है। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियां भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानों चिन्ताओं को हृदय से धो डालती है, मानो मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती है। सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं। यानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया । उसे देखते ही झूला बन्द हो गया । छोटी-बड़ी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दुक खोला और चमकती-चमकती चीजें निकाल कर दिखाने लगा । कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे खूबसूरत गुड़ियां और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज । एक बड़ी-बड़ी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसन्द की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुन्दर थी। वह फिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था ! मां से बोली-अम्मा; मैं हार लूंगी।

मां ने बिसाती से पूछा-बाबा, यह हार कितने का है।

बिसाती ने हार को रुमाल से पोंछते हुए कहा- खरीद तो बीस आने की है,मालकिन जो चाहें दे दें।

माता ने कहा- यह तो बड़ा महंगा है। चार दिन में इस की चमक दमक जाती रहेगी।

बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिला कर कहा- बहू जी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायगा!