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से न बुलाया होता, तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दूकान पर जाकर बोला- यहाँ हम जैसे मजदूरों का कहाँ गुज़र है, महाराज ! गाँठ में कुछ हो भी तो!

गंगू- यह आप क्या कहते हैं सरकार ! आपकी दूकान है, जो चीज चाहिये ले जाइए। दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आये तो। दिखाऊँ कोई जड़ाऊ चीजें? कोई कंगन, कोई हार। अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।

रमा- कोई हल्के दामों का हार दिखाइए।

गंगू- यही कोई सात-आठ सौ तक ?

रमा०- अजी नहीं, हद चार सौ तक।

गंगू- मैं आपको दोनों दिखाये देता हूँ। जो पसन्द आये, ले लीजिएगा। हमारे यहाँ किसी तरह का दगल-फसल नहीं, बाबू साहब। इसकी आप जरा भी चिन्ता न करें। पाँच बरस का लड़का हो, या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुँह दिखाना है, बाबू जी!

संदूक सामने आया; गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किये। रमा की आँखें खुल गयीं, जी लोट पोट हो गया। क्या सफाई थी ! नगीनों की कितनी सुन्दर सजावट! कैसी आब-साब ! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था, सौ रुपये से ज्यादा उधार न लगाऊँगा, लेकिन चार सौ वाला हार आँखों में कुछ जँचता न था। और जेब में कुल तीन सौ रुपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसन्द न किया, तो फायदा ही क्या। ऐसी चीज ले जाऊँ कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गर्दन में कितना शोभा देगा। यह हार एक सहस्र मणि-रंजित नेत्रों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था; पर मुँह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इनकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा- आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अँधेरे घर में रख दीजिए तो उजाला हो जाये !

ग़बन
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