उससे कुछ खाया न गया। जब वह उपर पहुँची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला-आज सराफ़े का जाना तो व्यर्थ हो गया। हार अभी तैयार न था। बनाने को कह आया हूंँ।
जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख छवि मलिन पड़ गयी, बोली-वह तो पहले ही जानती थी, बनते-बनते पाँच-छ: महीने तो लग ही जायेंगे ?
रमा- नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था।
जालपा-उँह, जब चाहे दे!
उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह फेरकर लौटने जा रही थी कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कुराती हुई बोली-तुम भी बड़े नटखट हो ! क्या लाये?
रमा०—कैसा चकमा दिया?
जालपा -यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की?
जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनन्द की लहरें-सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक एक अंग खिला जाता था। मुस्कुराती हुई आँखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गवाए देते थे। उसने हार गले में पहिना, शीशफूल जूड़े में सजाया, और सर्प-सी उन्मत होकर बोली-तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, ईश्वर तुम्हारी सारी कामनाएं पूरी करें !
आज जालपा की वह अभिलाषा पूरी हुई जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीडास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहाँ होती, तो सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती-तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो !
रमा पर घड़ों का नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनन्द प्राप्त हुआ।
जालपा ने पूछा-जाकर अम्माजी को दिखा आऊँ?
रमा ने नम्रता से कहा-अम्माजी को दिखाने जाओगी? ऐसी कौन-सी बड़ी चीजें हैं ?