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जालपा-अब मैं तुमसे साल-भर तक और किसी चीज के लिए न कहूँगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।

रमा गर्व से बोला-रुपए की क्या चिन्ता ? है ही कितने !

जालपा-जरा अम्माजी को दिखा आऊँ, देखें क्या कहती है ?

रमा०-मगर यह न कहना उधार लाये हैं।

जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गई,मानो उसे वहाँ कोई निधि मिल जायगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनन्द की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी-वह कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शान्ति है, शान्ति का माधुर्य और माधुर्य का उन्माद। जालपा ने कमरे में आकर अपनी सन्दूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नये चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भाँति मन्द पड़ गयी थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोक। उसने उस नकली हार को तो तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में फेंक दिया, उसी भांति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की पार्थिवी को जल में विसर्जित कर देता है।

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उस दिन से जालपा के पति-स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आले पर तेल और साबुन भी रखा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान माँगने पर मिलते थे, अब जबरदस्ती खिलाये जाते थे। जालपा उसका रुख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहाँ तक कि जब वह भोजन करने बैठता तो वह पंखा झला करती। पहले वह अनिच्छा से भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़ गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने दो गहने बहुत तुच्छ जाँचते थे।

ग़बन
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