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उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने खरीदे, उसी दिन से दूसरे सराफों को भी उसके आभूषण-प्रेम की सूचना मिल गयी। रमा जब उधर से निकलता, तो दोनों तरफ से दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते-आइये बाबूजी, पान तो खाते जाइये। दो-एक चीजें हमारी दुकान से तो देखिये !

रमा के आत्म-संयम से उसकी साख और भी बढ़ती थी। यहाँ तक कि एक दिन एक दलाल रमा के घर पर आ पहुँचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी सन्दूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा-भाई इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा-बाबूजी, देख तो लीजिए। पसन्द आये तो लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जाय, तो किसके पास जायें : औरों ने आपसे गहरी रकमें मारी; हमारे भाग्य में भी बदा होगा, तो आपसे चार पैसा पा जायेंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिये। मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।

रमा०- औरतों के पसन्द की न कहो, चीजें अच्छी होंगी ही। पसन्द आते क्या देर लगती है। लेकिन भाई इस वक्त हाथ खाली है।

दलाल हँसकर बोला- बाबूजी बस ऐसी बात कहते हैं कि वाह ! आपका हुक्म हो जाय तो हजार पाँच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग आदमी का मिजाज देखते हैं बाबूजी। भगवान् ने चाहा तो आज मैं सौदा करके ही उठूंगा।

दलाल ने सन्दूकची से दो चीजें निकाली, एक तो नए फैशन का जड़ाऊ कंगन था और दूसरा कानों का रिंग। दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी, मानो दीपक जल रहा हो। दस बजे थे। दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी भोजन करने जा रहा था। समय बिल्कुल न था; लेकिन इन दोनों चीजों को देखकर उसे किसी बात की सुधि ही न रही। दोनों को लिये हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियां टूट पडी़ं और उन चीजों को निकाल-निकालकर देखने लगी। उसकी चमक-दमक ने उन्हें

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