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ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही।

रमा- आजकल की चीजों के सामने तो पुरानी चीजें कुछ जचती ही नहीं।

जालपा- मुझे तो उन पुरानी चीजों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन दिनों औरतें कैसे पहनती थीं।

रमा ने मुस्कुराकर कहा तो दोनों चीजें पसन्द है न ?

जालपा- पसन्द क्यों नहीं; अम्माजी, तुम ले लो!

रामेश्वरी ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सिर झुका लिया। जिसका सारा जीवन गृहस्थी की चिन्ताओं में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों को पहनने की आशा कर सकती थी ! आह ! उस दुखिया के जीवन की साध ही न पूरी हुई। पति की आय ही कभी इतनी न हुई, कि बाल बच्चों के पालन-पोषण के उपरान्त कुछ बचता। जब से घर की स्वामिनी हुई, तभी से मानो उसकी तपस्या का प्रारम्भ हुआ और सारी लालसाएँ एक-एक करके धूल में मिल गयीं। उसने उन आभूषणों की ओर से आँखें हटा ली। उनमें इतना आकर्षण था कि उनकी ओर ताकते हुए वह डरती थी ! कहीं उसकी विरक्ति का पर्दा न खुल जाय। बोली मैं लेकर क्या करूँगी बेटा, मेरे पहनने ओढ़ने के दिन तो निकल गये। कौन लाया है बेटा ? क्या दाम हैं इनके ? रमा०- एक सराफ़ दिखाने लाया है, अभी दाम-धाम नहीं पूछे; मगर ऊंचे दाम होंगे। लेना तो था ही नहीं, दाम पूछ कर क्या करता ?

जालपा- लेना नहीं था तो यहाँ लाये क्यों?

जालपा ने यह शब्द इतने आवेश में कहा कि रमा खिसिया गया। उनमें इतनी उत्तेजना, इतना तिरस्कार भरा हुआ था कि इन गहनों को लौटा ले जाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। बोला-तो ले लूँ?

जालपा- अम्माँ लेने ही को नहीं कहतीं तो लेकर क्या करोगे। क्या मुफ्त में दे रहा है ?

रमा- समझ लो मुफ्त ही मिलते हैं।

ग़बन
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