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जालपा-सुनती हो अम्मा जी, इनकी बातें ? आप जाकर लौटा आइये। जब हाथ में रुपये होंगे, तो बहुत गहने मिलेंगे।

रामेश्वरी ने मोहासक्त होकर कहा- रुपये अभी तो नहीं माँगता ?

जालपा- उधार भी देगा तो सूद तो लेगा ही लेगा।

रमा०- तो लौटा दूँ ? एक बात चटपट तय कर डालो ! लेना हो ले लो, न लेना हो लोटा दो। मोह और दुविधे में न पड़ो।

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुँह से उसे ऐसी आशा न थी। इनकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिये। रामेश्वरी की ओर लालायित नेत्रों से देखकर बोली-लौटा दो। रात-दिन के तकाजे कौन सहेगा?

वह केसों को बन्द करने वाली थी, कि रामेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा- अब तुमने पहन लिया है अम्मा, तो पहने रहो। मैं तुम्हें भेंट करता हूँ। रामेश्वरी की आँखें सजल हो गयीं। जो लालसा प्राण तक पूरी न हो सकी वह आज रमा की मातृ भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी ? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है ? न जाने रुपये जल्द हाथ आयें या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का हुआ तो बेचारा देगा कहाँ से ? उसे कितने तकाजे सहने पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली-नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।

माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्याग-मूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उनका कुछ कर्त्तव्य भी तो है ? बोला-रुपये बहुत मिल, जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिन्ता मत करो।

रामेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है!

जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि

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