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माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।

बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता । उसे पहन कर वह सारे गांव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान्, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।

महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमीदार के मुख्तार । गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसें । वेतन कुल पांच रुपये पाते थे, जो उनके तम्बाकू के खर्च को भी काफी न होता था । उनको आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है ! जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे ; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता-तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-बड़ी दूर खेलने गए है ! कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे । फूंक-फूंक कर पांव रखते; दूध के जले थे, छांछ भी फूंक-फूंक कर पीते थे। माता-पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब!

दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिये कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते । उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है । गुड़िया और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी, यही उसके खिलौने थे। यह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था. अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी । गांव में कोई उत्सव होता

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