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माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें रामेश्वरी को सन्देह नहीं रहा। उन्होंने तुरन्त कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोलीं-मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूँ बहू, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब जरा तुम पहनो, देखूँ!

जालपा को इसमें जरा भी सन्देह न था कि माताजी के पास रुपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गयीं और कंगन के रुपये दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इनकार करती; ऊपरी मन से बोली __

-रुपये न हों तो रहने दीजिए अम्माँजी, अभी कौन जल्दी है ?

 रमा ने कुछ चिढ़कर कहा-तो तुम वह कंगन ले रही हो ? 
 जालपा-अम्माँजी नहीं मानती, तो मैं क्या करूं? 
 रमा०-और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतों ?
 जालपा-जाकर दाम तो पूछ आओ।
 रमा ने अधीर होकर कहा-तुम इन चीजों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब !

रमा ने बाहर माकर दलाल से दाम पूछा, तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे और रिंग डेढ़ सौ के। उनका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालिस-पचास रुपये के। पछताये कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिये, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती ? फेरते हुए शर्म पाती थी; मगर कुछ भी हो, फेरना तो पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ यह सिर पर नहीं ले सकता। दलाल से बोला-बड़े दाम है भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही श्रांका था। दयाल का नाम चरनदास था : बोला-दाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाये सरकार, तो मुंह न दिखाऊँ। धनीराम की कोठी माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपये की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरजी हो दीजिए, या न दीजिए।

रमा०-तो भाई,इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी है।चरन०-ऐसी बात न कहिए बाबूजी। आपके लिए इतने रुपये कौन

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