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पैसे में दुकान का भाड़ा, बट्टा-खाता, दस्तूरी-दलाली सब समझिए। बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जायें। सवेरे-सबेरे लौटना न पड़े।

जालपा-कह दिये, वही सात सौ।

चरन ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला-सरकार, है तो घाटा हो पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रुपये कब मिलेंगे?

जालपा-जल्दी ही मिल जायेंगे।

जालपा अन्दर जाकर बोली-आखिर दिया कि नहीं सात सो में ? डेड़ को साफ उड़ाये लिये जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कहा। ये लोग इस तरह ग्राहकों को लूटते हैं।

रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा, कि बोझ उस पर लद ही गया।

जालपा तो खुशी की उमंगों में दोनों चीजें लिये ऊपर चली गयी, पर रमा सिर झुकाये चिन्ता में डूबा खड़ा था। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीजों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों जोर देकर नहीं कहा-मैं न लूंगी, क्यों दुविधे में पड़ी रही ? साढ़े पाँच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहाँ से आयेंगे। असल में गलती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था।

लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे।

भोजन करके जब ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली-आज किस अच्छे का मुँह देखकर उठी थी। दो चीजें मुफ्त हाथ आ गयीं।

रमा ने विस्मय से पूछा-मुफ्त क्यों ? रुपये न देने पड़ेंगे?

जालपा-रुपये तो अम्माजी देंगी ?

रमा०-क्या कुछ कहती थी ?

जालपा-उन्होंने मुझे भेंट दिये हैं, तो रुपये कौन देगा?

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा-यही समझकर तुमने यह

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